शुक्रवार, 28 मार्च 2014

एक गीत, जिसे मैंने तो केवल उभार दिया है -जगदीश पंकज 

कोरे कागज पर पहले ही, 
जाने क्या-क्या लिखा हुआ था 
मैंने तो अपनी स्याही से 
केवल उसे उभार दिया है 

यह मेरा सौभाग्य, मुझे 
अवसर देकर 
अनुग्रहित किया है 
मैंने वही लिखे हैं अक्षर
जिनको अनगिन बार जिया है

जिसने देखा बहुत सराहा
मेरी आँखें झुकी जा रहीं
मैंने भी अपना कह देने का
कुछ तो अपराध किया है

तथाकथित मेरे अपने ही
अग्रज-अनुज
सभी दोषी हैं
जिनके स्नेह और आदर ने
मेरी अभिलाषा पोषी हैं

मौलिकता का दम्भ जी रहे
केवल अनुकृतियां करने में
जो कुछ हम अपना कहते हैं
पुरखों से सायास लिया है

-जगदीश पंकज

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

सिसक रहे सपनों से आगे 

सिसक रहे 
सपनों से आगे 
कुछ तो जीवन-सत्य खड़े हैं 
उन्हें सहेजें,
उन्हें सजायें 
देखें नये-नये फिर सपने 

जब नवजात 
कोंपलों को भी
निष्ठुर मौसम
जला रहा है
जब एकाकीपन
जीवन का
सहयोगीपन
गला रहा है
तब अपने ही
आस-पास में
खोजें कौन पराये-अपने

लगे सांत्वना भी
गाली सी ,
जब नैराश्य
प्रबल होता है
अपना धैर्य
बचाकर रखना
शक्ति औ'
सम्बल होता है
अपने साहस
आँच-ताप में
आयें तब कुंदन सा तपने

कितनी भी
वीभत्स प्रलय हो
सब कुछ नष्ट
नहीं होता है
बची ऊर्जा के
संचय में
कोई कष्ट
नहीं होता है
अपने साम
गान में खोजें
मंत्र सृजन के फिर से जपने

-जगदीश पंकज

मंगलवार, 11 मार्च 2014


गीत है वह

गीत है वह
जो सदा आखें उठाकर
है जहाँ पर भी
समय से जूझता है

अर्ध्य सत्यों के
निकल कर दायरों से
जिन्दगी की जो
व्यथा को छू रहा है
पद्य की जिस खुरदरी ,
झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस
निचुड़ कर चू रहा है
गीत है वह
जो कड़ी अनुभूतियों की
आँच  से अनबुझ
पहेली बूझता है

कसमसाती
चेतना की, वेदना का
प्रस्फुटन
जिसमैं गढ़ा है
गीत है वह
जो सदा उद्दाम लहरों सी
निरंतरता लिये
आगे बढ़ा है
गीत है वह
जो सहारा बन उभरता
जिस समय कोई न
अपना सूझता है

-जगदीश पंकज 

बुधवार, 5 अगस्त 2009

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